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Tuesday, May 31, 2011

प्रयास

कुमार विश्वास जी कि हर रचना कुछ ऐसे छू जाती है मन को कि अपने आप ही शब्द मन से फ़ूट पड़ते है। उन्हे तो शायद इल्म भी नही होगा कि उनकी रचना किसी को फ़िर से कलम उठाने की प्रेरणा दे जाती है…

रिवायते कुछ दुनिया की कुछ फ़र्ज़ की मजबूरियाँ है
कैसे चलूँ तेरी ताल पर मेरे पैरो के नीचे धरती बिछी है
तू कवि है तेरे तरन्नुम मे सपनो की फ़ुलवारियाँ खिलती है
मेरे नसीब के आसमां को सितारे भी नसीब नही है
तू नाप आसमां की ऊंचाईयों को मेरे दिल को अब चलने की आदत नही है

Sunday, May 29, 2011

इतनी दूरियाँ है बीच मे


इतनी दूरियाँ है बीच मे
के मेरी कल्पना भी नही जाती
किसे कहूँ कैसे दूँ यह संदेस
की वहाँ मेरी धड़कन भी नही जाती
न खत ही आया कोई ना आया कोई पैगाम
यह किस जहाँ मे पहुचे हो तुम कि
मेरी आवाज़ भी तुम तक नही जाती
स्वपन सा सुंदर संसार दिखा कर
मेरे अंतर मे मोती बसा कर
क्यो छोड़ गये मुझे दिखा स्वप्न संसार
अब मेरी अश्रु धार भी
तुम्हारी अँगुलिया पोंछ नही पाती

Tuesday, May 24, 2011

ख्याल तेरा यादो मे

ख्याल तेरा यादो मे आता है ऐसे
बिसरी गज़ल कोई दोहराता हो जैसे

लबो से तेरा नाम लेते है ऐसे
बाद मुद्द्त के चखी हो सुरा जैसे

बहुत चाह्त है विसाल-ए-यार कि हमे
मुद्द्त हो गई किसी दर पे सज़दा किए हुए

ऐ खुदा मेरी आहो को ज़रा असर बख्श दे
वो भी करे उफ़्फ़ ज़रा जिनकी तड़प मे हमने उम्र गुज़ार दी

Tuesday, May 17, 2011

सब चलता है!!!

जी रहे है आस मे ईश्वर की चाह मे
कुछ नही बदलता है ये हिन्दुस्तान है यहाँ सब चलता है
नेता है गुंडे, पालते हैं सिर्फ़ चमचे
क्या करे चुनाव जीत आना है
कुर्सी बड़ी चीज़ है, नोट खर्च मे ही जीत है
जनता है बेवकूफ़ भोली होने का बहाना है
क्या करे कुछ ऐसा ही ज़माना है
कुछ नही बदलता है ये हिन्दुस्तान है यहाँ सब चलता है

जगह जगह चक्का जाम है दुहाई है ये कैसा विकास है
मँहगाई पर रोक नही है, कत्ल पर टोक नही है
बोने वाले के घर अन्न नही है, मर भी जाए तो गम नही है
जन्मदात्री के जन्म पर मौत खड़ी है
एक मुठ्ठी अनाज पे दुलारी बेटी बिकी है
इस अन्धेर नगरी का चौपट राजा है
कुछ नही बदलता है ये हिन्दुस्तान है यहाँ सब चलता है

हर तरफ़ माया है, कही ममता तो कही जयललिता है
बहुत से राजा है, कालमाड़ी है और रोज़ नया एक घोटाला है
खब्ररी हैं पर बिकने की उन्हे भी जल्दी है
जिन्हे लिख्नना है सच वो बन गए विवादी है
पी आर टी के चक्कर मे बना गरीब घनचक्कर है
कुछ नही बदलता है ये हिन्दुस्तान है यहाँ सब चलता है

बाहर कौन दुश्मन है यह सबको पता है
भीतर कौन बैठा जयद्र्थ है क्या पता है
मरने को तैयार देश का भविष्य है
कब्र मे लटकाए पाँव बैठा देश का नेतृत्व है
यहाँ तुल जाती एक ताबूत मे शहादत है
कुछ नही बदलता है ये हिन्दुस्तान है यहाँ सब चलता है

Monday, May 16, 2011

इशारा

जिनकी याद मे उम्र गुज़ार दी हमने, ए खुदा इशारा तो दे कि वो भी याद किया करते है हमे
जिन यादो मे हमारी सुबह शाम सजी रह्ती है, ए खुदा बता उनकी तन्हाईया सजाते तो हैं वो लम्हे॥

कहीं से कोई आवाज़ नही आती, पर यकीन है कहीं से वो भी पुकारा तो करते हैं हमें
इश्क की शिद्द्त पर इतना तो भरोसा है दूरियाँ लम्हों कि हो या सालो कि
आज भी मन्न्तों मे वो माँगा तो करते हमें

कौड़ियों मे बिकता था ईमान

कभी कौड़ियों मे बिकता था ईमान अब नही मिलता
बहुत प्रजातियाँ इस शताब्दी मे विलुप्त हो गयीं
ऐसे ही कुछ शब्द भी बेफूज़ुल से रखे हैं शब्द्कोशों मे
जो अब बेमानी से हो गये
बहुत दिन हुए मेरे मैं से मुलाकात हुए
जाने जीवन की इस आपा धापी मे किस आईने मे खो गया वो
मुखौटे उतारते अब डर लगता है
एक आदत सी हो गयी है चेहरे ओढ़ने की
कहते हैं बड़े हो जाना ही काफ़ी नही
समझदारी का सबूत देना भी पड़ता है
कई बार सच को छुपा झूठ कहना ही पड़ता है
वरना यह लोग हँसेंगे इसलिए मॅच्योर होना ही पड़ता है...
मनीषा

नग्मा

मेरे नग्मे नही किसी का दिल बहलाने का सामान
तेरे गुनगुनाने के लिए ये आशार नही कहे मैने
ये मेरे अरमानो के बिखरे से टुकड़े है
झलकता है जिगर का हर ज़ख्म जिन मे
हर हर्फ़ से टपकता है लहु ख्वाबो का मेरे

प्रतिक्रिया

डा कुमार विशवास कि कविता कुछ नसो मे ऐसी उतर गयी कि ये शब्द फूट पङे:

कैसे चलूँ तेरी ताल परआसमां तक मेरे पैरो के नीचे धरती बिछी है
तू उन्मुक्त आसमां का पंछी 
मेरे सिर से पाँव तक रिवाज़ों की बेडियाँ हैं,
तू अपने मन का रमता जोगी 
मेरी धडकन पर भी, कई सवाली पहरे है
तूने तो गीत लिख डाले अपने दिल की हर तड्प पर
जो मेरी खामोशियों मे दर्द है वो तेरे नग्मो मे हो नही सकता।
मैं तो मिट गई किसी कि आरज़ू भरी रातों मे,
जो मेरी शहनाईयो मे ज़हर था वो तेरी तन्हाइयो मे हो नही सकता।
आसान था मजनूँ के लिये पगला, दीवाना बन जाना
हर मीरा को वैराग का अधिकार मिल नहीं सकता
रिवायते कुछ दुनिया की कुछ फ़र्ज़ की मजबूरियाँ है
कैसे चलूँ तेरी ताल पर मेरे पैरो के नीचे धरती बिछी है
तू कवि है तेरे तरन्नुम मे सपनो की फ़ुलवारियाँ खिलती है
मेरे नसीब के आसमां को सितारे भी नसीब नही है
तू नाप आसमां की ऊंचाईयों को मेरे दिल को अब मचलने की आदत नही है
 मनीषा

आवाज़ हूँ अंतर मन की

मैं आवाज़ हूँ अंतर मन की, तुम्हारी चेतना अवचेतना के

बीच की कड़ी,
स्वीकारो या ठुकरा दो अपने आप से कैसे
भाग सकोगे,
जब सांझ ढलेगी और सूरज की लाली फैलेगी
लौटेंगे पखेरू जब घर को,
तब यादों के किसी कोने से मैं तुम्हे पुकारूँगी ॥
मुझे पोस के रखना,
वरना अंधियारी काली रातों मे,
चाँदनी मे और अमावस मे,
तकिये पटकते रहोगे चादर पर पड़ी सिलवटें सीधी करते

रहोगे
पर नींद कहाँ से आएगी?
वो तो मेरी खामोश चीत्कारों मे गुम हो जाएगी।
मैं आवाज़ हूँ तुम्हारे अंतर्मन की,
कहीं नही जाऊंगी,
तुम्हारे पदचिन्हों का लेखा जोखा हर आईने मे तुम्हे

दिखाऊँगी।
मैं सिर्फ़ आवाज़ हूँ अवचेतन मन कि एक झंकार हूँ॥

Sunday, May 15, 2011

तेरा घर मेरा काबा काशी

तेरा घर मेरा काबा काशी
तेरी आवाज़ आज़ान मुझे
जो तेरा फेरा कर लिया
फिर चार धाम किस काम मेरे

तू रामायण सी पावन
कान्हा की बन्सी सी मृदुल प्रिये
दरस जो तेरा कर लिया
सूत उपदेश की  क्या दरकार मुझे

कोई टिप्पणी नही आती!!!

मन रत है, रोटियाँ आसमान से नही बरसती
तन रत है, ज़िन्दगी लम्हो मे नही कटती
शब्द मूक है, लेखनी पर धूल पड़ी,सिर्फ़ इच्छाएँ किसी का पेट नही भरती
ज़िन्दगी यहाँ तपती धूप है, हर किसी को छाँव नही मिलती
इतनी बढ़ी ज़रूरत यहाँ कि मौत से भी अब रफ़्तार नही रुकती॥

चेतना

सब कुछ लुटा दे जो वही बैरागी हो जाता है
जिसकी चेतना जाग उठी वही कवि हो जाता है


फ़्रर्ज़ अदायगी कुछ ऐसी पडी मुझ पर कि हँसी  भी आँखो से लौट गई
कोई ज़रा मेरी बेबसी भी देखे मन घट से भी प्यासी लौट गई

Saturday, May 14, 2011

तुम कवि हो आह भर भी लेते हो

तुम कवि हो आह भर भी लेते हो
मेरी उदास चूडियाँ खनकती भी हैं तो सरगम सी लगती हैं
ये ससुराल की गलियाँ हैं यहाँ पायल भी खनकती है तो शोर सी लगती है।

सासुल कहती हैं बहु जितना पूछा जाए उतना ही कहो
ससुर कहते हैं घर की लक्ष्मी हो ज़रा आड़ मे रहा करो
नन्दी कह्ती है भाभी इतनी ज़ोर से ना हँसो
देवर कह्ता है भाभी चरण छूता हूँ बाबा से मेरे प्यार की बात करो
बलम कह्ते हैं थक के आया हूँ चलो कोई और बात करो
मन कहता है ज़रा फ़ुर्सत मिले तो छत पर जाया जाए
घूँघट की आड़ मे ही आँख भर आकाश देखा जाए
तुम कवि हो आह भर भी लेते हो
मेरी उदास चूडियाँ खनकती भी हैं तो सरगम सी लगती हैं

सब के बीच कभी खोजती हूँ उस अल्हड़ लड़की को
जिसके सपनों में सूरज ढलता और चाँद निकलता था
जिसकी खनकती बातों से सारा घर चहकता था

तुम कवि हो आह भर भी लेते हो

कैसे समझोगे तुम इस कवि मन से
भावाकुल मन की मजबूरी
सप्तपदी के सात पग में नापी जाती है
कैसे जन्म-जन्मांतर की दूरी
कैसे रंग जाती है जीवन रेखा इक पल में सिन्दूरी

तुम कवि हो आह भर भी लेते हो
कह्ते हो गीत लिखते हो , मेरी याद मे आँख नम भी करते हो
पर याद किसे करते हो, जो मैं थी या जो हो गई मैं अब
उस प्यारी मूरत को, माँ बाबा की लाड्ली को किस ठौर खोजते हो
तुमको सिर्फ याद बस पल भर की वो मासूम हँसी ठिठोली
मन के रागों पर केवल व्यर्थ गीत रचते तुम
दुनियावी बातों से क्या काज तुम्हे
तुम कवि हो आह भर भी लेते हो

तुम आसमाँ नापते रहे और मैं धरा होती रही
तुम चंद्र्मा से चमकते रहे और मै अमावस मे खोती रही
तुम्हारे हर अश्क से हर्फ़ बनते गए और मैं मूक चीत्कार करती रही
तुम मुझे बेवफ़ा कहते गए और मैं वो इल्ज़ाम बनती गई
ढलना था मुझे तेरे प्यार भरे गीतो मे और मै उदास गज़ल बनती गई
तुम कवि हो आह भर भी लेते हो
मनीषा