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Wednesday, September 28, 2011

पतझड़


फिर बीता मौसम बहारों का
फिर पतझड़ आ गया है
फिर टूटेंगे कुछ  दिल
के फिर नज़रों मे प्यार छा गया है

फिर बीता मौसम बहारों का
फिर पतझड़ आ गया है
फिर टूटेंगे कुछ  दिल
के फ़िर नज़रों मे प्यार छा गया है

सूरज मे बहुत नर्मी है
हवा भी अब कुछ बर्फ़ीली है
करीब से गुज़रते हुए
फिर कोई नज़रें चुरा  गया है

बहुत वीरनियाँ है इन पहाड़ों मे
बहुत खामोशियाँ है इन तूफ़ानों मे
इस साल सर्द रातों मे काँपेंगे हाथ
फिर कोई जाते हुए आग बुझा गया है

Monday, September 26, 2011

मंज़िले





उड़ानो की हद मत तय करो अभी आसमान और भी हैं
नाकामी को दिल से इतना मत लगाओ, अभी रास्तो मे मंज़िले और भी हैं
पाने को मंज़िल रास्तों के पैर मोड़ दे ओ! मीत
बन वो राहगीर जिनकी शिद्द्त मे मंज़िले राह खोजती हैं

Thursday, September 22, 2011

अतीत

कभी आ जाती है यूँ ही आवाज़
अतीत के कोने से
मन फ़िर से बहकने लगता है
पर तब ज़िन्दगी पुकार उठती है
और हम जीने लगते हैं
एक बार फ़िर
अजनबी से
बिना उस धडकन के

Tuesday, September 13, 2011

कल्कि

काया थी कमज़ोर तो क्या
बुलन्द थी तेरी आवाज़
सच्चा था तेरा आह्वान
दृढ़ था तेरा निश्चय
कूचे कूचे से फ़िर उठी थी
गूँज वही " मैं भी अन्ना "
"मैं भी अन्ना"
हिल उठे फ़िर सिंहासन
के मतवाले
चमक उठी बूढी आँखो मे
वही आशा पुरानी थी
त्रस्त है सदी
भूख और मजदूरी
से टूट रही थी देह
हर भारतवासी की
भ्रष्टाचार का असुर
कर रहा अट्टाह्स है
हर तरफ़ बेकारी है
लाचारी है
त्राही त्राही कर रही भारत माँ
लाल उसके सोए थे
ऐसे मे आए हो तुम
ले ज्योति परिवर्तन की
कलयुग के कल्कि बन
उतरे हो अवतार मय
हाँ, तुम ही मेरे अन्ना
तुम ही मेरे अन्ना
तुमने फ़िर मन मे विश्वास की
मशाल जगाई है
बदलेगा भारत फ़िर अपनी किस्मत
हर बेटे को फ़िर ये आस दिलाई है
आज तुमको इस भारती का
शत शत नमन
शत शत वन्दन

Tuesday, September 6, 2011

फर्क

चाहती हूँ हमारे बीच का प्रसंग
यूँ ही चलता रहे.....
लेकिन
सूनी रात के सन्नाटे में 
अनजान राह पर 
अजीब उमंग से बढ़ते हुए 
क़दमों को 
न चाहकर भी, करती हूँ जब
रोकने का प्रयतन
सहम जाती हूँ तब
एक चुप्पी आवाज़ 
मेरे भीतर से फिसलकर 
पहुँच जाती हे कहीं दूर
सुन पाती हूँ 
केवल प्रतिध्वनि मात्र 
एहसास तब करती हूँ
कितना फर्क हे-
चलते रहने और रुक जाने में......

तुम्हारे वे अंदाज 
जो मेरी समझ से बाहर हे 
पहेली बन गए हे
उन्हें बूझ न पाने की लाचारी में 
एहसास करती हूँ 
कितना फर्क हे
समझ लेने 
और ना समझ पाने में.....

जब मेरे अधरों से कहलाकर
मेरी ही बातों में मुझे उलझाकर
तुम हँस देते हो
तब एहसास करती हूँ
कितना फर्क हे
कह देने
और चुप रह जाने में.....

कभी स्मृति के दर्पण पर
झलक आता हे 
किसी अनचाही याद का अक्स
और कोई बहका सा ख्याल
खींच ले जाता हे मुझे
अतीत के भँवर में 
एहसास करती हूँ तब में
कितना फर्क हे
याद रखने
और भूल जाने में........