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Wednesday, November 30, 2011

रिश्ते


ज़िन्दगी की आपाधापी में कुछ रिश्ते जो हाथ से छूट जाते हैं
तन्हाइयों में अक्सर याद आते हैं
मन करता है कभी उन्हें पुकार ले, धीरे से फिर वो नाम लें
फोन की तरफ बढ़ता हाथ थम सा जाता है
भीतर बैठा कोई टोकता  है "ये कोई वक़त है?"
"अभी नही फिर कभी"
"शायद कल "
और वो कल फिर नहीं आता और उम्र बीत जाती है
उस एक अधूरी बात में
 उस याद में , एक चाह में 
की कभी उन्हें पुकार लें
कभी तो धीरे से उनका नाम लें

Saturday, November 19, 2011

एक दिन जब हम साथ होंगे



एक दिन जब हम साथ होंगे 
एक पास होंगे 
तब शायद प्यार के ढंग बदल जायेंगे
कहने के अंदाज़ बदल जायेंगे
साथ साथ होगा तब 
हमें  हर एहसास
देखेंगे हम तब एक साथ
बारिश की बूंदों से नाम होती हरी घास
और सुनेंगे साथ-साथ 
पत्तों से ढुलकती शबनम की आवाज़
गंध भरेगी माटी
हमारे भीतर साथ-साथ 
और साथ ही भीग जाएँगे
हम किसी तेज़ फुहार में
कभी बहुत सवेरे 
आँगन बुहार मैं
जब भीतर आऊंगी 
तब पाऊंगी तुमने फिर
घर बिखरा दिया है
या गीला फर्श मिट्टी से भर दिया है
मैं झुन्झुलाऊंगी  और चिल्लाऊंगी भी तुम पर
तुम तब शायद हंस दोगे 
और एक घूँट में चाय ख़तम कर
चल दोगे अपने काम पर
मन में एक गुदगुदाता एहसास लिए
कभी किसी छुट्टी के दिन रसोई में खड़े हो कर
तुम , मुझसे कुछ बनवाओगे
और फिर
मेरी ही नुक्ताचीनी भी करोगे
यूंही कभी-कभी सताओगे मुझे तुम
मुझ रूठी हुई को मनाओगे भी तुम
कभी जब दस्तक सुन मैं किवाड़ खोलूँगी'
तब हवा के भीने झोंके से तुम मिलोगे
दरवाज़े के उस पार
कितनी ही शरारते होंगी
रोज़ कितनी ही बातें होंगी
घर की दफ्तर की
अनुभवों की
नित  नई- नई नोक झोंक होगी
कभी शायद जब हम साथ होंगे 
एक पास होंगे

Friday, November 18, 2011

प्रसंग


कहते हो की हमारे बीच का प्रसंग यूँ ही चलने दो
लेकिन सूनी रात , भीगी पगडंडियों पर 
घिसट घिसट चलने और रुकने की कोशिश में
जब कदम सहम जाते हैं
एक चुप्पी आवाज़
मेरे भीतर से फिसल 
पहुँच जाती है कहीं दूर
सुन पाती हूँ - प्रतिध्वनि मात्र
एहसास तब करती हूँ 
कितना फर्क है चलते रहने और रुक जाने में
तुम्हारे वे अंदाज़ जो मेरी समझ से बाहर हैं
पहेली से बन गए हैं
उन्हें बूझ ना पाने की लाचारी में
एहसास करती हूँ
कितना फर्क है समझ लेने में और ना समझ पाने में
जब मेरी ही अधरों से कहला कर और 
मुझे मेरी ही बातों में उलझा कर तुम हंस देते हो 
तब एहसास करती हूँ
कितना फर्क है कह देने और चुप रह जाने में
कभी अनचाही यादों के पुलिंदे 
छांटती हूँ और कोई बहका सा ख़याल 
मुझे बेचैन कर देता है 
तब एहसास करती हूँ. कितना फर्क है 
याद रखने और भूल जाने में

Thursday, November 17, 2011

कुछ अलफ़ाज़...

तुझे खबर क्या  तेरी रातों  के  लिए  कैसे सितारे चुन  दिए  मैंने , 
दे  कर  तुझे  स्नेहल  चाँद  निष्ठुर  सूरज  रख  लिए  मैंने 

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तेरे प्यार का ये एक भरोसा ही काफी है मेरे जीने के लिए 
तेरी ज़िन्दगी में न सही तेरी हर मन्नत में शामिल हूँ मैं ज़रूर

Thursday, November 10, 2011

सूरज


माना मैं  ढलता सूरज हूँ 
 डूब कर भी तेरे चाँद को रौशन कर जाऊंगा 
बस इतना सा ही नहीं है मेरा फसाना 
इन अंधेरों के पार फिर मुझे इक सुबह को रौशन करना है 

Tuesday, November 8, 2011

कैसे खबर हो मुझे

जो मैंने कहा वो ज़माने ने तो सुन लिया
 तुमने वो सुना या ना सुना कैसे खबर हो मुझे
जो मैं गा रहा हूँ. ज़माना दोहरा रहा है
तुमने भी कभी गुनगुनाया ये कैसे खबर हो मुझे 
मेरी खबर तो तुम तक पहुँचती होगी ज़रूर
तुम्हे मेरी खबर  हो जाती है
ये कैसे खबर हो मुझे 

Saturday, November 5, 2011

कृष्णमय


मैं उसकी हुई इस जीवन मे जो मेरा हो कर भी मेरा नही है
मन मेरा मीरा भी राधा भी
कृष्ण सबके हो के भी ना मीरामय मे ना राधामय

Wednesday, November 2, 2011

उजले अन्धेरे



तू पूछता है की तेरी ज़िंदगी मे है ये अंधेरा कैसा
बता इन अंधेरो से है तुझे डर कैसा
इनमे चमकते है सैकड़ो सितारे
तू खोजता है सूरज कैसा
माना तेरी राहो मे है बहुत रोड़े
है जिगर तुझमे तो बना ले
उन्हे मील का पत्थर