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Wednesday, February 27, 2013

तुमने अंकित कर दिए शब्द

कितनी सरलता से तुमने 
अंकित कर दिए  शब्द 
और घुमड़ते भावों को दे दिया 
एक निश्चित आयाम 
एक कोरे कागज़ पर लिख दिया
 इस रिश्ते का नाम और अंजाम 
पर क्या यह  काफी है 
उन सभी मूक अभिव्यक्तियों 
को व्यक्त करने के लिए 
क्या मन के भाव बंधन में बंधे रह जाएँगे 
या व्यक्त हो उन्मुक्त हो जाएँगे 
शब्दमय अभिव्यक्ति केवल क्षणिक सुख देती  है 
अनकहे विचार मन में ज्वर भाटे से मचलते हैं 
मन के साहिल को कचोटते काटते 

क्या मैं इन शब्द सेतू के पार 
जान पाऊंगी  तुम्हे 
या तुम इन शब्दों की परम्परा से मुक्त हो 
पारदर्शी हो पाओगे
 शब्द सतही हैं 
कोरे अक्षर पंगु से सिर्फ 
रिश्तो के दायरे मापते हुए 

तुम और मैं 
इन  पूर्व निर्मित वाक्यों में उलझे 
मिल नहीं पाते , कहीं  गुम हो जाते है अर्थों  की सूची में 
फिर  सप्तपदी के इन वचनों को 
मैं क्यों यूं ही  मान लूं 
मैं क्यों और कैसे विश्वास  करूं 
और तुम भी क्यों स्वीकार करो 
इन भाव विहीन शब्दों में स्पष्ट होते अर्थ 

क्यों न तुम और मैं 
सिर्फ मूक भावों का ही सम्प्रेषण करें 
और मान ले शब्दोंकी असक्षमता को 
जो आज इस क्षण से पूर्व 
और इस क्षण के बाद 
या इस क्षण में भी 
हमारे बंधन को समेट  नहीं पाएंगे 
अपनी सीमित सार्थकता में 

एक बार फिर से पहचान करें 
मन से मन की बात करे 
कुछ तुम मेरी अनकही सुनो 
कुछ मैं तुम्हारी आप बीती सुनूँ 
फिर से वो पहली मुलाकात करें 
चलो शब्दों वाक्यों विधानों से परे 
आँखों की आँखों से  बात करें 

मनीषा 


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