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Friday, April 25, 2014

ज़रूरत

ज़रूरत तो किसी बात की कभी नही होती
ज़रूरत ज़िंदगी में फिर भी कम नही होती
शामिल हूँ एक उलझन सी आपकी महफ़िल में
देखा जाए तो ज़रूरत आपको तो मेरी भी नही होती



मॉँग लेती हूँ तुझे रोज़ टूटते सितारों से 
देखती हूँ कब तलक़ रखती है 
ये कायनात भी तुझे जुदा मुझ से 
मनीषा

Wednesday, April 23, 2014

बाग़ यूँ उजड़ गया

बाग़ यूँ उजड़ गया
बागबाँ देखता रहा
कली कली सिहर उठी
आंसू जो थिरक उठे
शबनमें ढुलक गई
सुर्ख लाल रक्त सा
गुलाब यूँ मुरझा रहा
बूटा बूटा कराह गया
कोहरा ऐसा छा गया
हवाएँ भी रो पड़ी
माटी तर हो गई
रक्त समुद्र में भरा
चाँद सिसकिया ले रहा
तारे भी सहम गए
रात वहीं ठहर गई
अँधेरा किरण निगल गया
रात से दिन डर गया
भोर का सिन्दूर छिपा
गगन का चन्द्रमा डूबा
ज़िंदगी मौत से ढँप गई
रोए नन्हे फूल प्यारे
झुलसी कोपलें कँवारी
कहर ये कैसा आ पड़ा
धरा हृदय रो पड़ा
मानवता तेरी सो गई
ज़िंदा लाशे दिख रही
विहार में बहार व्योम थी
माली शून्य मन से तक रहा
गगन रक्तिम हो चला
उषा पे वैधव्य छाया
सूर्य भी सिमट चला
खो गई हर ख़ुशी
तमन्नाएँ सब मर गई
जाग मानव जाग जा
प्यार क्या है प्रीत क्या
जीवन का है गीत क्या
गीत का है सार क्या
गुरबानी की अरदास क्या
क्या लिखा कुरान में
क्या कहा तेरी बाइबल ने
मीत से मीत मिला
दिल से दिल को मिला
खिला दे बस इक हंसी
जाग उठेगी बहार भी
प्रेम प्रीत बहेगी
हर साँस जी उठे
ऐसा गीत कोई गा
नया सुर तो आज सजा
खिला दे नई रौशनी
झूम उठे ज़िंदगी
मनीषा

मेरी व्यथा को अभी सोने दो

मेरी व्यथा को अभी सोने दो
छाई है अलसाई चाँदनी
मुझे मधु-मस्त रहने दो
जागा  है भाव सागर
 लहरों को अभी मचलने दो

मेरी व्यथा  को अभी सोने दो

कब कब आती है पूनो
अमा रही अब तक जीवन पर छाई
निकल आया है ये कैसे
भूले से आज उजास
ज़रा रंगोली सजोने दो

मेरी व्यथा  को अभी सोने दो

स्थिर जल में कम्पन
ज्वार उठा है तो जल चढ़ने दो
रंग जाए आज धरा
इतना रंग बिखरने दो
बांधो तोरण द्वार
दो ढोलक पर थाप
गा लो मंगल गान
नभ पर मेहंदी रचने दो

मेरी व्यथा  को अभी सोने दो
मनीषा

वो रह तो लेता है खुश मेरे बिना

वो रह तो लेता है खुश मेरे बिना
फिर भी अक्सर मुझे पुकारता क्यों है
लगता तो है की उसे मेरी फ़िक्र नही
फिर भी इस तरह निहारता क्यों है
चाहती हूँ भूल जाऊँ  उसे सदा के लिए
फिर भी ख्यालो में वो मुस्कुराता क्यों है
मनीषा

जब मिलते हो तब कहते हो "चलो"

जब मिलते हो
तब कहते हो "चलो"
हर बार
पर कहाँ  ?
और कहाँ  तक ?
कैसे जा सकते हैं ?
तुम और मैं
साथ साथ
क्षितिज से परे
स्नेहिल धागों
के दायरों के पार
कोई अस्तित्व
कैसे रच सकते हैं पुनः
अपनी एक परिधि ?
जो बंध गए बंधन
तुम्हारे और मेरे
दायित्व उत्तरदायित्व
कर्म अकर्म  की भाँवरें'
जो स्वयं ही बाँध ली
अपने पैरों में -
जाने अनजाने
कैसे चल सकते हैं
अब हम साथ साथ
अपने लिए एकमात्र
अभी तो जीबन जीना है
हमे अलग ही रहना है
अपनों में अपनेपन के रंग भरने है
और साथ साथ
एकसाथ
मगर दूर रहना है
तुम मिला करो
मुझे हर पल
मैं मिलती रहूँ तुम्हे
हर क्षण
दिनभर की कड़ियों में
से कुछ कुछ लम्हे चुरा
यूं ही साथ रहना है
दूर दूर मगर
साथ साथ
जुदा  जुदा
पर पास पास
एकदूसरे के  आसपास

मनीषा 

धीमे से कह गया कोई

ख्याल रखना अपना
धीमे से कह गया कोई
मेरी अंजुरी से दर्द उठा
पुष्प भर गया कोई
एक  आलिंगन में
मेरे दर्द अपने कर गया कोई
मेरे लबों पर हँसी
पलको पर आँसू  छोड़ गया कोई
फिर आने का वादा कर
मेरी तन्हाई से अपनी
यादें जोड़  गया कोई
मनीषा 

हर इक आँख नाम है यहाँ

हर इक आँख नाम है यहाँ
हर दिल में कुछ गम हैं यहाँ
हर शख्स मुस्कुरा के मिलता है यहाँ
तन्हाईयों  का दर्द से रिश्ता है यहाँ
मनीषा 

Tuesday, April 22, 2014

प्यार छू कर गुज़र गया था

प्यार छू कर गुज़र गया था कभी 
कसक कहीं भीतर बाकी है अभी 
वो वादा तो न कर गया था आने का 
दिल में एक उम्मीद बाकी है अभी 

पलकों में उतरते नही ख्वाब कभी 
सहर तक रहती है आँखों में नमी 
वो बातें तो करता था मिलने की अक्सर 
इसलिए रहती है दरवाज़े पर नज़र टिकी अभी 

मनीषा

खुदा के बस में


तेरे साथ सुबह ने मेरा दिन महका दिया 
रात आई तो तेरी बातों ने जहां भुला दिया 

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ता उम्र उसके मुन्तज़िर गुज़ार दी 

जो शख़्स दफन था सीने में 
वो मेरी गलियों में भटक रहा था 
मैं ढूंढ रही थी जिसको सारे शहर में 

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जो मिल जाए वो ज़ुस्तजू क्या 
जो पूरी हो जाए वो ख्वाहिश क्या 
एक नज़र में जो न बदल दे दुनिया
है वो आतिश-ए -इश्क़ क्या 

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रहनुमा समझ थामा था जिनका हाथ 
वो भी दामन बचा बचा कर निकले 
जिनके लिए रोए उम्र भर 
वो ही मेरे हाल से बेखबर निकले 

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ख्वाब सा कोई छू कर 
करीब से ऐसे गुज़र गया 
न सुबह हुई न शाम हुई 
बस दिन इंतज़ार में ढल गया 

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आज कोई नहीं है साथ मेरे 
फिर भी कारवां लिए चलता हूँ 
इक तू है और बस ख्वाब तेरे 
जिसे तलाशता गली गली फिरता हूँ 

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तुम मेरे हाथों की लकीरों में पीरों को दिख जाते हो 
हर रोज़ आरती में दुआ बन के लब पर उतर जाते हो 

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खुदा के बस में 

बस इतना ही था 
की मुझसे अलग तुझे 
रख दिया उम्र भर के लिए 
इस तड़प इस दीवानगी 
इस आशिक़ी के मिज़ाज़ को 
वो भी कम ही तौल बैठा


मनीषा

Monday, April 21, 2014

हिन्दू मुसलमान

आप और हम गाय बकरी में अटके रहे 
मंदिर मस्जिद पर लड़ते रहे 
यहाँ शहीदों का भी बंटवारा हो गया 
वर्दी पर चढ़ा तिरंगा भी हिन्दू मुसलमान हो गया

इक धूप का टुकड़ा

इस गर्म दुपहरी में
इक धूप का टुकड़ा
ज़िद से आ बैठा है
मेरे कमरे की दीवार पर
परदे के परदे से
छिपता हुआ
पीपर के उस हिलते
पात का जैसे कोई
संदेसा ले आया है
बार बार सोए बाबा की
पीठ सहलाता है
हौले से
और बाबा अनमने से
करवट बदलते है
देह पर रखी चादर
कुछ और ऊपर
खींच लेते है
धीरे धीरे सरकता सा कैसा
अधिकार जमाता है
सिमटने से पहले
कमरे के भीतर फैले अंधियार में
जगमगाता है
नटखट सा बार बार सताता है
कैसे धीरे से जगाता है
नींद उचटाता है
जैसे तुम्हारी तरह
जाने से पहले
इक बार चूम कर
फिर आने का वादा करता है
मनीषा

Sunday, April 20, 2014

ख्वाब सा कोई

ख्वाब सा कोई  छू कर
करीब से ऐसे गुज़र गया
न सुबह हुई न शाम हुई
बस दिन  इंतज़ार में ढल गया
मनीषा 

Monday, April 14, 2014

तुम और मैं

तुम और मैं
मैं और तुम
इस चाँद के नीचे
साथ साथ पर अलग अलग
अपने ही दायित्व में बंधे
ख़्वाब  संजोते- भूलते -खोए से
दायरे खींचते दूर दूर चलते
पास पास रहते
अपने अपनोे में पराए से
तुम और मैं
मैं और तुम
जैसी मै  वैसे तुम
जैसे तुम वैसी मैं
एक दूसरे के पूरक
एक दूजे बिन अधूरे
कुछ अधूरे तुम
कुछ अधूरी मैं
तुम और मैं
मैं और तुम
अधूरे अधूरे
पूरे पूरे
दूर कितने
पास कितने
मनीषा 

Friday, April 11, 2014

कल से कालेज की छुट्टियां हैं

सुनो , कल से कालेज की छुट्टियां हैं
अब हमे यूं  मिलना कम करना होगा
तुमसे मन ही मन  बातें करना कम करना होगा
अकेले में धीमे धीमे मुस्काना  बंद करना होगा
अपना अक्स आईने में देख इतराना कम करना होगा
सहेली के बहाने से मिलना अब बंद करना होगा

कल से कालेज की छुट्टियां हैं
अब हमे यूं  मिलना कम करना होगा

हथेली पर  तुम्हारे नाम का पहला अक्षर कहीं खोजना होगा
पीरों और मंदिरों  से तुमको मांगना दर दर अब करना होगा
तुम्हारे लिए अब हर सोमवार व्रत करना होगा
रामायण की कुंजी में मनोकामना फल अब देखना होगा
पूरी दोपहरी माँ दीदी के साथ बैठ अब ठहाकों  में तुम्हें भूलना होगा

कल से कालेज की छुट्टियां हैं
अब हमे यूं  मिलना कम करना होगा
मनीषा 

Thursday, April 10, 2014

उम्मीद

प्यार छू  कर गुज़र गया था कभी
कसक कहीं भीतर बाकी  है अभी
वो वादा तो न कर गया था आने का
दिल में एक उम्मीद बाकी  है अभी

पलकों  में उतरते नही ख्वाब कभी
सहर तक रहती है आँखों में नमी
वो बातें  तो करता था मिलने की अक्सर
इसलिए रहती है दरवाज़े पर नज़र टिकी अभी

मनीषा 

Tuesday, April 8, 2014

रोज़

रोज़ सुबह एक इरादा करती हूँ 
किरणों  से एक वादा करती हूँ 
दिन उगता है रंजिशे लिए और तपिश से लड़ती हूँ 
शाम के ढलते ढलते भीतर तक झुलस जाती  हूँ  
जब रात गहराती है और आंगन में चाँद को पाती हूँ 
मेरी दिन भर की थकन तेरी बातों में भूल जाती हूँ 
मनीषा

कुछ पंक्तियाँ


तेरे और मेरे जूनून में फर्क इतना सा है 
तेरे पास तेरी दुनिया है और तू मेरी दुनिया है 

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कैसे  विश्वास करूं
छिन्न भिन्न हो चुका  है जो
उसका फिर कैसे पुन: निर्माण करूं

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बार बार वही  बात करती हूँ 
मैं अपने भीतर के सन्नाटो  से डरती  हूँ 
कैसे भूल जाऊँ  आप बीती 
अब तेरे प्यार से भी मैं डरती  हूँ 
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वक्त बदल जाए तो मौसम बदल जाते हैं 
लोग बदल जाते हैं अपने पराए बदल जाते हैं 
छोड़ इन बातों वादों और इरादों को 
मैंने देखा है कैसे सुबह और शाम के मंज़र बदल जाते हैं
मनीषा

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दो नन्हे हाथों  से थाम रख़ा  है ज़िंदगी ने मुझे 
वरना मौत ने तो भेजे हैं बेइंतहा पैग़ाम  मुझे 

Thursday, April 3, 2014

मौसम बहार का

फिर खिले होंगे  गुलाब उस छत पर
फिर आया होगा मौसम बहार  का
तेरे  आंगन
झूले की वो पींग एक मेरे नाम की
एक तेरे नाम की
हवा छू  कर  हिलाती तो होगी वो शाख
आम की
सखि  तू भी तो छिपाती होगी
मुस्कुरा कर नमी आँख की
मनीषा 

कुछ अधूरी

कुछ  जी गई  कुछ मर गई मैं
फिर थोड़े थोड़े हिस्सों में बंट गई मैं
तुझसे मिल कर जो जुदा  हुई मैं
तो कुछ तो पूरी  रही कुछ अधूरी रही मैं
मनीषा 

देखो पिया

दिल में छिपा सको नाम मेरा तो छिपा लेना
मन में बसा सको प्यार मेरा तो बसा लेना

ना नज़र आऊँ  मैं आँखों में तुम्हारी
कोई नज़र मिलाए तो तुम पलक गिरा देना।

खिले यदि तन्हाई में कभी याद मेरी
तो किसी किताब में उस खुश्बू को दबा देना।

कभी चलते चलते साथ अपने कदम पाओ मेरे
तो होंठो पर खिलती मुस्कान  वहीं  छिपा लेना।

देखो पिया यदि कोई पूछे किसे खोजती हैं नज़रे
तो कहीं नाम मेरा तुम न बता देना।

वक्त  यदि मिला दे किसी मोड़ पर हमें
तब हाथ अपना तुम भी आगे बढ़ा देना।

मनीषा