Pages

Tuesday, April 8, 2014

रोज़

रोज़ सुबह एक इरादा करती हूँ 
किरणों  से एक वादा करती हूँ 
दिन उगता है रंजिशे लिए और तपिश से लड़ती हूँ 
शाम के ढलते ढलते भीतर तक झुलस जाती  हूँ  
जब रात गहराती है और आंगन में चाँद को पाती हूँ 
मेरी दिन भर की थकन तेरी बातों में भूल जाती हूँ 
मनीषा

No comments:

Post a Comment