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Sunday, August 17, 2014

मेरे घर की सूनी देहरी पर




मेरे घर की सूनी देहरी
पर कुछ उजाले रखे हैं
यादों के पन्नों पर उतरे
कुछ अफ़साने रखे हैं

झड़ती दीवारों की दरारों पर
गुदगुदाते ठहाके रखे हैं
फर्श पर बिखरी धूल पर
अलक्तक कदमों के निशां रखे हैं

उन दो कमरों में बंद
मानमनुहार के तराने रखे हैं
बालकनी में पड़े टूटे तख्त पर
तुम्हारे गुनगुनाते गान रखे हैं

उस घर में सन्नाटों में गूंजते
कुछ तुम्हारे मेरे स्वर रखे हैं
एक दराज़ में सम्भाल माँ ने
तुम्हारे वो ख़त रखे हैं

पुराने आले में सजे
तुम्हारे कुछ उपहार रखे हैं
छीन झपट होती थी जिनके लिए
कुछ उदास थाल रखे हैं

रात दिन हुए तेरे मेरे  बीच के
हास परिहास रखे हैं
उस छत के नीचे आज भी
माँ पापा के आशीर्वाद रखे हैं


सीढ़ियों पर कुछ भूले
पदचाप रखे  हैं
दरवाज़ों पर हल्दी
कुमकुम  के थाप रखे  हैं

मंदिर में अब भी
माँ  के भगवान  रखे हैं
लाल कपड़े में लिपटे
गीता पुराण रखे हैं

ड्योढ़ी पर आस भरे
इंतज़ार रखे हैं
पुरानी अलमारी में संभाल कर
दर्द के अहसास रखे हैं

हर ज़र्रे ज़र्रे में कुछ
अधूरे अरमान रखें है
आँगन की  सूखी तुलसी में
दर्द के अहसास रखे हैं

कैसे सहेजूँ और क्या क्या सम्भालूँ
उस घर में जाने कितने बुझे चिराग रखे हैं

मनीषा

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