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Monday, April 27, 2015

किस किस पीड़ा को बाँधू शब्दों में

किस किस पीड़ा को बाँधू शब्दों में
किस किस  ज़ख्म पर रख दूँ मलहम
हर आँख से  टपका हर अश्रु
शूल सा चुभता है
शब्दों में सड़ते जिस्मों की सड़ांध भरूँ तो कैसे ?
कितने कफ़न और बुनवा  लाऊँ
सोग मनाने के लिए शहर इकठ्ठा है
इस शहर का हर शख्स बहरा है
सियासत ज़िंदा रहती है लाशों के ढेर पर
कुछ गिद्ध जा बैठे हैं उस प्राचीर पर
शहर के बागीचों में तैर रही सुरा की धार
वहाँ  किसान सूखा खेत तकता है
बच्चों को दे ज़हर जा पेड़ से लटकता है
चीखते रहते हैं रात और दिन
जनतंत्र की चिता दहकती  रहती है
रोज सिर्फ मुद्दों के चेहरे बदल जाते हैं
कहाँ किन कानों  में उगल दूँ
इस छाती का ज़हर
मुर्दों की बस्ती से क्या करूँ उम्मीद
यहाँ इन्साफ महँगा खून सस्ता है
इंसान की कीमत वहाँ क्या होगी
जहाँ ज़मीर कौड़ियों के भाव बिकता  है
जहाँ ज़मीर कौड़ियों के भाव बिकता  है
मनीषा

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