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Sunday, May 10, 2015

बस एक तू ही नहीं मिलती

सारा जहां मिलता है
मुझसे आज हँस हँस कर
बस एक तू ही नहीं मिलती
प्रशंसा पत्र इनाम तो बहुत मिलते हैं
तेरी प्यार भरी झिड़की नहीं मिलती
सौ पकवान भरे दस्तरख़ान बहुत मिलते हैं
माँ तेरे हाथ की घी चुपड़ी रोटी नहीं मिलती
बहुत नरम बिछौने हैं मेरे इस घर में भी
पर तेरी दुलार भरी गोद  नहीं  मिलती
सोती तो हूँ माँ हर रात अपने इस सुख संसार में
पर जो तेरी लोरी सुन कर आती थी वो नींद नही मिलती
जहाँ भी जाती हूँ इस दुनिया में
घर जल्दी लौट आने की अब हिदायत नहीं मिलती
मनीषा

माँ

वो घर खाली मकां होते हैं
जहां माँ के मान नही होते हैं
मनीषा

एक फूँक से सारी चोट ठीक कर देती है
ईश्वर भी सुनता है
जब माँ आशीष से झोली भर देती है
मनीषा

माँ जब आती थी



जाने कैसे करती थी 
माँ  आती थी तो 
मेरे एक कमरे को घर कर देती थी 
बिस्तर की मैली चादर धो देती थी 
मेरी कुरती  में सितारे जड़  देती थी 
जाने  कैसे करती थी 
जिसमे मुझको बरसों लगते हैं 
हर वो काम माँ  चुटकी में कर देती थी 
सूखी दाल रोटी में अजब स्वाद भर देती थी 
जाने कैसे करती थी 
कितने बड़ी पापड़ गुझिया से वो 
सारे खाली डिब्बे भर देती थी 
पापा से छिपा के मेरे बटुए में 
ढेर से रूपये धर देती थी 
जाने कैसे करती थी 
माँ जब होती थी तो
साँझ को घर जल्दी आने का मन में चाव भर देती थी
घर के द्वार पर हल्दी कुमकुम की थाप कर देती थी
पूजा घर तुलसी में मान भर देती थी
हर दिन को वह त्यौहार  कर देती थी
माँ जब आती थी
तो मेरे घर को मंदिर कर देती थी 
मनीषा 

Monday, May 4, 2015

मुलाकात

 बाद मुद्द्त के फिर उनसे मुलाकात हुई 
जो किसी ने ना समझी ना जानी 
आँखों की आँखों से वो ही बात हुई 
वो मुस्कुरा दी हम हंस दिए 
इश्क की मासूमियतें अब जवान हुई 
मनीषा

Sunday, May 3, 2015

माँ का घर भाभी का आँगन

माँ का घर भाभी का आँगन
सखियों का साथ
वो झूलों की ऊंची ऊंची पींगें
वो रात भर चहकना
वो दिन भर मटकना
वो हमारे नाज़ और नखरे
वो दादी का 'हाय राम! ये लड़की!' वाली घुड़कियाँ
वो गिट्टे वो टप्पे वो माँ की साड़ियाँ
वो चादर ढकी मेज़ के नीचे  वाली दोपहरियां
वो गुड़िया की  शादी  पर सखियों से लड़ाईयां
हम और हमारी कारगुजारियां
वो माँ का चोरी से आँखें दिखाना
वो पापा की आड़ में डांट से बच जाना
वो चाचू की साईकिल पर
पूरी दोपहरिया गली में चक्कर लगाना
वो बुआ का आना
और सारे घर का खिलखिलाना
बहुत याद आता है
बचपन की नटखट गलियों में
हर बार खींच ले जाता है
ये आँगन में लगे
आम के दरख्त पर बौर का आना
मनीषा

Friday, May 1, 2015

अमृता



भीगी माटी से उठा कर 
अक्षरों को कागज़ पर रख दिया 
कविता महक गई 
रचना अमृता हो गई

फूली सरसों के बीच से 
गुज़र कर आई हैं पंक्तियाँ 
और मेरे देश की ज़ुबां हो गई 
तुम अक्षर अक्षर होती रही 
मुल्क बनता रहा बिगड़ता रहा 
दर्द पिरोती साँझ उतरती रही 
तुम स्वयं मसीहा होती रही

कोरे कागज़ पर बिखरे 
एक मुठ्ठी अक्षर 
किरणों को तराशते सूरज 
की खोज में भटकते रहे 
साहिल दर साहिल 
जाने कब तुम दरगाह हो गई 
मनीषा

31 October 2005

दर्द जब हद से गुज़र जाए


आप ही अपनी दवा हो जाए 
ये ज़नाज़ा -ए -आशिक है या रब 
महबूब की गली से जो गुज़र जाए 
तो जान -ए -तरब में बदल जाए 
मनीषा
जान -ए -तरब -life of joy