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Wednesday, August 5, 2015

हथेली पर उतरी धूप का एक टुकड़ा

 हथेली पर उतरी धूप का एक टुकड़ा
या है ये बीते लम्हों का एक कतरा
आज में कल थोड़ा थोड़ा समाया हुआ
और कल में आज थोड़ा सा बिसराया हुआ
हथेली पर मेरी सुनहली  मेहँदी सा रच गया
धूप  का ये नन्हा सा कतरा
नभ  के आशीष सा मन में उतर  गया
अकेली सी बैठी थी मैं एक सदी से
मुझ अनजानी  से पहचान कर गया
हंस कर जाने कितनी बाते कर गया

मनीषा  

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