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Friday, December 29, 2017

चाँद का मुँह टेढ़ा है अब भी माधव

चाँद का मुँह टेढ़ा है अब भी माधव
रक्त का उबाल लिखने वाली कलम  रिक्त पड़ी है
हवाओं में घुल चुका है ज़हन का विष
रात्रि का सन्नाटा सूरज लील गया है
कविता  हास परिहास को विवश है
कवि कब का भूख से मर चुका है
Manisha Verma

Wednesday, December 20, 2017

माँ मुझे बुलाती रही

मैं अपनी कामयाबियों पर इतराता रहा
माँ मेरे लिए दुआएं पढ़ती रही
धूप मुझे छूने से पहले
उसके आँचल से गुज़रती रही
मैं व्यस्त रहा सदा दुनियावी झमेलों में
माँ मुझे बुलाती रही
अब जब घर की तुलसी पर दीप नहीं है
तब जाना माँ के बिन घर घर नहीं है
मनीषा
19.12.2017

Wednesday, December 13, 2017

केवल नारी

पूज्य बना दिया तो कभी पांव की जूती
सिर्फ देखी राधा सीता अहिल्या या मंथरा कैकेयी
रुपमती हो तो अप्सरा ना हो तो शूर्पणखा
कहां देखी तुमने  केवल नारी
बस देखी एक जिम्मेदारी

Friday, November 24, 2017

पिता

पिता की आँखो में अश्रु
माँ के नैनो में मनुहार देखा है
बस इस इक रिश्ते
में बिना शर्त  प्यार देखा है

Wednesday, November 8, 2017

रिश्ते कुछ अजीब होते हैं

रिश्ते कुछ अजीब होते हैं
जहां है वहाँ  कभी नहीं मिलते
और कभी अचानक यूँही मिल जाते हैं
ये रिश्ते भी अजीब  होते हैं

कभी कुछ दूर के होते हैं
तो कभी नज़दीकियों के
कभी अनुभवी से होते हैं
कभी नादान  से होते  हैं
ये रिश्ते भी अजीब  होते हैं

जन्मो से गहरे पल में जुड़ जाते हैं
कभी तार तर हो क्षण में टूट जाते हैं
कुछ बिखरे से होते हैं
कुछ गहरे से होते है
ये रिश्ते भी अजीब  होते हैं

बेतक्क्लुफ़ से बेपरवाह से होते हैं
तो कभी मजबूरी में निभाह  होते हैं
मुस्कुराते हैं एकांत में
चुभ जाते हैं महफिलों में
ये रिश्ते भी अजीब  होते हैं

कुछ मीठे से कुछ तीखे से
अपने से, अजनबी से
शरारती से, गंभीर से
कड़वे से, खट्ट मीठे से
चटपटे लच्छेदार होते हैं
ये रिश्ते भी अजीब  होते हैं

मन पे बंधे बंदनवार से
हथेली पे रची मेहँदी से
सावन के त्यौहार से
जीवन की खरी कमाई होते है
ये रिश्ते भी अजीब  होते हैं
मनीषा वर्मा



Saturday, October 14, 2017

हिंदी तो बिंदी है

हिंदी तो बिंदी है भारत माँ के भाल की
बोली इसकी खड़ी है लिपि देवनागरी
प्राकृत की बेटी है उर्दू की भगिनी है
भाषाओँ में भागीरथी है हिंदी
सूर की बोली खुसरों की पहेली
कबीर की वाणी रसखान का काव्य है हिंदी
तुलसी की मानस में कामायनी के व्याख्यान में
विचारों की अविरल धारा है हिंदी
क्रिया विशेषण वाच्य कारक
संधि समास अलंकारों से सुसज्जित
साहित्य की दुल्हन सी है हिंदी
हिंदी की गाथा है गाथा भरत संतान की 
मनीषा वर्मा

Monday, August 28, 2017

अच्छे दिन हैं भाई कहने दो

जनतंत्र है सब स्वतंत्र हैं
अच्छे दिन हैं भाई कहने दो

नोट जो रखे थे माँ ने कनस्तर में
हुए काले से गुलाबी रहने दो
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

सब्जी बेच रही जो माई
उसके घर में नहीं पकती रोटी ढाई
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

जी एस टी, सी एस टी ढो रही जनता
हो गया बाज़ार सस्ता कह रहे नेता
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

व्यापारी को मिलता नहीं नोट
रूपये का गिर गया मोल
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

डूब रहा पटना दरभंगा
जल रहा रोहतक  दिल्ली हरियाणा
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

लड़ रहा खाली पेट जवान
भूखा मर गया किसान 
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

एक एक सांस को तरसी जनता बेचारी
उठाई  अपनों की अर्थियां कंधो पर भारी
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

छूटे रोजगार, बंद हो रहे सब दफ्तर
होती नही कहीं कमाई खाली सब कनस्तर
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

 गिरता जा रहा रोज बाज़ार
 रूपया रोए ज़ार ज़ार
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

बांचते पोथी पत्री  हाकिम हजूर सब कहते 
नहीं है सिर्फ ज़िम्मेदारी हमारी 
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

कमीटियाँ बन गईं  ढेर सारी  
मर गई कब की आँख की शर्म सारी  
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

नौकर सेठ सब हुए कंगाल
साहिब कहते चल रहा अमृत काल 
आ गए अच्छे दिन भाई कहने दो

मनीषा वर्मा

#गुफ्तगू

Friday, June 16, 2017

तिथियाँ रह जाती हैं

सिर्फ तिथियाँ  रह जाती हैं
लोग चले जाते हैं
लम्हे गुम  हो जाते हैं
कुछ अनकही बाते रह जाती हैं

दिन निकलता है ढलता है
चेहरे बदल जाते हैं
समय चक्र सा चलता है
सिर्फ व्यवहार बदल जाते हैं

गम ओ 'खुशियाँ  वही रहती हैं
मुकाम बदल जाते हैं
कहानियाँ  किस्से वही  रहते हैं
बस किरदार बदल जाते हैं

दुनियावी संसार चलता है
कर्ता, कारक बदल जाते हैं
कर्मो का खाता  चलता है
सिर्फ कर्ज़दार  बदल जाते हैं
मनीषा 

Wednesday, March 15, 2017

ये कैसे रहनुमा हैं

ये कैसे रहनुमा हैं जो सच से डर जाते हैं
धर्म समझ कर नासमझ बच्चों को आँख दिखाते हैं
कैसे ये पैगम्बर हैं कौन से हैं ये खुदा
जो मासूम मुस्कुराहटों पर फतवे लगाते हैं
कांच से भी नाज़ुक हैं ये कौन से संस्कार
जो प्यार मोहब्बत से चटक जाते हैं
कोई निकला है तीर -ओ- तलवार तो कोई ख़ंजर ले कर
ये किसके धर्म हैं जिन्हें ये चन्द ठेकेदार बचाते हैं
मनीषा

Tuesday, March 14, 2017

ना खेलूँ श्याम तो संग होरी रे

ना खेलूँ श्याम तो संग होरी रे
भरी गागर फोरी काहे मोरी रे, रसिया
नंद बाबा के लाल भए दोउ
इक बलराम दूजे सांवल मुरारी रे, रसिया
ग्वाल बाल संग मोहे रंग दिखावे
श्याम काहे डगर मोरी घेरी रे, रसिया
बरसाने जाइ के रास रचाना
श्याम हमहुँ ना राधे तोरी रे, रसिया
रंग अबीर टेसू मोहे भावे
भर भर गागर भिजोए बनवारी रे, रसिया
ना खेलूँ श्याम तो संग होरी रे
भरी गागर फोरी काहे मोरी रे, रसिया
मनीषा
मार्च 2017

Wednesday, March 8, 2017

निज-स्वप्न की उड़ान

तुम उड़ना
निज-स्वप्न की उड़ान
बिटिया तुम उड़ना
हो पथ पर आदित्य आक्रांत
या छाए अम्बुद घनेरे हों
भय त्याग निर्भीक तुम बढ़ना
तुम उड़ना बिटिया
निज-स्वप्न की उड़ान
राह बांधे मन कभी रोकें पग भूलभुलावे सभी
हो कंटक की चुभन कहीं
अविचिलित अविरल तुम बढ़ना
तुम उड़ना बिटिया
निज-स्वप्न की उड़ान
पंख कभी भारी हों मंद हो गति कभी
लेना तुम पल को विश्राम कहीं
फिर स्मित मुस्कान लिए तुम बढ़ना
तुम उड़ना बिटिया
निज-स्वप्न की उड़ान

पंख बाँध ले जाए व्याध कभी
मिले ना तुम्हे नभ विस्तृत विशाल कभी
खोना मत निज पर विश्वास कभी
तुम उङना बिटिया
नित परवान नई
तुम उड़ना 
निज-स्वप्न की उड़ान 
छोड़ जाएं चाहे पथ पर मनमीत सभी
राह हो जाए भूलभुलैया सी कभी
मत भूलना निर्मल संस्कार
बिटिया तुम उड़ना
निज-स्वप्न की उड़ान
सरिता सा निर्मल पथ हो
पुष्प रंजित तुम्हारी डगर हो
पितृ आशीष का श्रृंगार लिए
तुम बढ़ना बिटिया
तुम उड़ना
निज-स्वप्न की उड़ान

ललचाए तुम्हे जो विकृत पथ की सरल माया 
विचारो जो पथ पर क्या खोया पाया 
निज हृदय में ढूंढ लेना तुम मेरा तुम पर विश्वास 
और कर जाना हर बाधा पार 
तुम उड़ना बिटिया
निज-स्वप्न की उड़ान 
मनीषा
8 /3 /2017

Sunday, March 5, 2017

ये बेटियाँ

धान सी उग जाती हैं
जाने किस मिट्टी से बन जाती हैं
ये बेटियाँ
हर दर से जुङ जाती हैं
रौनक किसी घर की भी हों
हर रंग मे रम जाती हैं
ये बेटियाँ
पीहर की फुलवारी चहकाती हैं
पापा का संबल भइया की राखी
माँ का आँचल बन जाती हैं
ये बेटियाँ

मिश्री सी बातों से दिल बहलाती हैं 
कुछ चटपटी कुछ तीखी सी 
पानी में नमक सी घुल जातीं हैं 
ये बेटियाँ  

कच्ची पक्की रोटी सी गुंध जाती हैं 
घर में हाथ बटाती  हैं 
सम्मान की अंगुली पकड़  चाँद तक चढ़ जाती हैं 
ये बेटियां 
झूले की पींगो पर सावन गाती हैं
बाबुल की चुप्पी
माई की मजबूरी समझ जाती हैं
ये बेटियाँ
कितने स्वप्न तकिए पर काढ़ जाती हैं
होठों पर मुस्कान कोरों पर अश्रु लिए
चुपचाप विदा हो जाती हैं
ये बेटियाँ
चिरइया सी उङ जाती हैं
अपनी जीवन गति को अल्पविराम दे
दोनों कुल की लाज निभा जाती हैं
ये बेटियाँ
मनीषा

Tuesday, February 7, 2017

हाल जो पूछ लिया

ज़रा सा हाल जो पूछ लिया
और मन गुनने लगा
सुनहरी धूप  के रेशों में
कुछ बुनने लगा
बारिश के गीतों में
स्वप्न सुनने लगा
ज़रा सा हाल जो पूछ लिया

धड़कनें  सी थमने लगी
साँसे रुकने सी लगी
रोम रोम गुनगुनाने लगा
 ज़रा सा हाल जो पूछ लिया

मनीषा 

Friday, February 3, 2017

ईश्वर





पूज्य भी अपूज्य हो जाता है
खंडित हो तो ईश्वर भी

बेघर हो जाता है
बहुत मान से आई थी जो मूरत
देख पवित्रता ली थी जो चुनर
वटवृक्ष तले आश्रय पाता है
आरती का दीप जब बुझ जाता है
महकता गूगल जो राख हो जाता है
किसी उदास मुंडेर से ढुलकाया 
जाता है
चढ़ देवालय पर जब पुष्प सूख जाता है
गहन अंधेरे में रास्ते की गर्द हो जाता है
खंडित हो तो ईश्वर भी 
बेघर हो जाता है
मनीषा

Wednesday, February 1, 2017

जिस आँगन में

जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता देखूँ
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए  उस को कैसे ढहता देखूँ

सूने सूने टूटे दर्पण में तेरा मेरा बीता  बचपन देखूँ
धूल भरे उन  दीवारों पर अतीत का हर इक पन्ना देखूँ
दरवाज़े की दरारों  से झाँकता  माँ से अपना होता झगड़ा देखूँ
बिस्तर पर बिछी उसी पुरानी  चादर पर अब तक बैठा
वो हम सबका मुस्कुराता लम्हा देखूँ

जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता देखूँ
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए  उस को कैसे ढहता देखूँ

उस आंगन में अब पसरा वो गर्द भरा तन्हा सन्नाटा देखूँ
पीछे आँगन  में  चुप पड़ी वो धूप  का टुकड़ा देखूँ
अल्मारी  में बन्द पड़ी वो भाभी की चूड़ियाँ  देखूँ
बन्द पड़े उस टीवी के रिमोट पर अब तक चढ़ी  पन्नी से
महकती  वो तेरी मेरी खींचातानी देखूँ

जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए  उस को कैसे ढहता देखूँ

टूटती जा रही छत से क्षितिज पर डूबता सूरज देखूँ
ठंडी चादरों पर  वो तारों से की जो हर बात पुरानी देखूँ
लोहड़ी की ठंडी पड़ी राख में बस के रह गई जो
पुरानी  वो  ढोलक की थाप  देखूँ

जिस घर से उठी थी मेरी डोली , जिस घर बजी तेरी शहनाई
उस कैसे मैं ढहता देखूँ
जिस आंगन में बांधे वन्दनवार , जिस दरवाज़े सजाई रंगोली
उसे कैसे मैं जर्जर होता देखूँ
जिस आँगन में खेली मैं उस आंगन को कैसे जर्जर होता देखूँ
जिस ड्योढ़ी पर दीप जलाए  उस को कैसे ढहता देखूँ

मनीषा वर्मा
#गुफ्तगू