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Thursday, January 18, 2018

दिन जब लम्बे थे

दिन जब लम्बे थे और रातें छोटी
घड़ी के कांटों से बंधे हम ना थे

रात रात तक कहानी किस्से थे
इतने तन्हा तो हम ना थे

दिन की गलियाँ फिरते थे आवारा
दिल से इतने खाली तो हम ना थे

आंखो में उड़ाने थी कदमों में थिरकन थी
राह की उलझनों से वाकिफ तो हम ना थे

पतंगों के पेच थे चकरी और माँजे पर लड़ते थे
रिश्तों के इन पेचीदा भँवरों में उलझे तो हम ना थे



मनीषा वर्मा 

Tuesday, January 16, 2018

लेखनी तुम लिखती रहना

लेखनी तुम लिखती रहना
मन की आवाज़ को शब्दों में रचती रहना
शमशीर तले अपमान शीश धरे
तुम चलती रहना
जब तलक प्राण स्याही रहे
शारदा चरणों में पुष्प अर्पित करती रहना
लेखनी तुम लिखती रहना

बाल मुस्कान विधी का विधान
माँ का आशीष बूढ़ी आँखो का दीप
हरि की लीला हृदय की पीड़ा
तुम गाती रहना
जब तलक नोक में धार रहे
जगती का लेखा तुम अंकित करती रहना
लेखनी तुम लिखती रहना

#गुफ्तगू
मनीषा

Saturday, January 6, 2018

एक ग़ज़ल

कभी एक ग़ज़ल भी बयां नहीं करती मुझे
कभी एक मिसरे में उतर जाता हूँ मैं

वैसे तो एक बंद दरवाज़ा हूँ मैं
तेरी एक दस्तक पर भीतर तक खुल जाता हूँ मैं

नाउम्मीदगी से डगमगायी जब भी कश्ती मेरी
तेरे आसरे पर पार उतर जाता हूँ मैं

बढ़ता हूँ जो चार कदम अपनी मंजिलों की तरफ
उसकी गलियों में अक्सर भटक जाता हूँ मैं

ढूँढता फिरा जिस हमनवाज़ को दर बदर
उस  को अपने ही अक्स में पा जाता हूँ मैं

मांगने जाता हूँ दुआ जो खुदा के दर तक
अपने ही अंदर उतर जाता हूँ मैं

यूँ तो कर लिया था दिल सफ़्फ़ाक मैने
फिर भी उसकी सादगी पर पिघल जाता हूँ मैं

यूँ तो मशहूर हैं ज़माने में मेरी आश्नाई के किस्से
मगर अपनों से निबाहने में अक्सर चूक जाता हूँ मैं

मनीषा वर्मा